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इन्द्रो॒ विश्वै॑र्वी॒र्यैः॒३॒॑ पत्य॑मान उ॒भे आ प॑प्रौ॒ रोद॑सी महि॒त्वा। पु॒रं॒द॒रो वृ॑त्र॒हा धृ॒ष्णुषे॑णः सं॒गृभ्या॑ न॒ आ भ॑रा॒ भूरि॑ प॒श्वः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indro viśvair vīryaiḥ patyamāna ubhe ā paprau rodasī mahitvā | puraṁdaro vṛtrahā dhṛṣṇuṣeṇaḥ saṁgṛbhyā na ā bharā bhūri paśvaḥ ||

पद पाठ

इन्द्रः॑। विश्वैः॑। वी॒र्यैः॑। पत्य॑मानः। उ॒भे इति॑। आ। प॒प्रौ॒। रोद॑सी॒ इति॑। म॒हि॒ऽत्वा। पु॒र॒म्ऽद॒रः। वृ॒त्र॒ऽहा। धृ॒ष्णुऽसे॑णः। स॒म्ऽगृभ्य॑। नः॒। आ। भ॒र॒। भूरि॑। प॒श्वः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:15 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब राजा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जो (वृत्रहा) मेघ को नाश करनेवाले सूर्य के सदृश (पुरन्दरः) शत्रुओं के नगरों का नाश करनेवाला (पत्यमानः) स्वामी के सदृश आचरण करता हुआ (धृष्णुसेनः) दृढ़ सेना और (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त राजा आप (विश्वैः) सम्पूर्ण (वीर्यैः) पराक्रमों से (महित्वा) महिमा से (उभे) दोनों (रोदसी) न्याय और भूमि के राज्य को (आ, पप्रौ) व्याप्त करते हैं वह आप (भूरि) बहुत (नः) हम लोगों और (पश्वः) पशुओं को (संगृभ्य) उत्तम प्रकार ग्रहण करके (आ, भरे) सब प्रकार पोषण कीजिये ॥१५॥
भावार्थभाषाः - जैसे भूमि और सूर्य सब पदार्थों को धारण और उत्तम प्रकार पोषण करके बढ़ाते हैं, वैसे ही राजा आदि अध्यक्ष सब उत्तम गुणों को धारण प्रजा का पोषण, सेना की वृद्धि और शत्रुओं का नाश करके प्रजा की वृद्धि करें ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजविषयमाह।

अन्वय:

हे राजन् यो वृत्रहेव पुरन्दरः पत्यमानो धृष्णुसेन इन्द्रो भवान् विश्वैर्वीर्यैर्महित्वोभे रोदसी आ पप्रौ स त्वं भूरि नोऽस्मान् पश्वश्च सङ्गृभ्या भर ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परमैश्वर्यो राजा (विश्वैः) अखिलैः (वीर्यैः) पराक्रमैः (पत्यमानः) पतिः स्वामीवाचरन् (उभे) (आ) (पप्रौ) व्याप्नोति (रोदसी) न्यायभूमिराज्ये (महित्वा) महिम्ना (पुरन्दरः) शत्रूणां नगराणां हन्ता (वृत्रहा) मेघहन्ता सूर्येव (धृष्णुसेनः) धुष्णुः प्रगल्भा दृढा सेना यस्य सः (सङ्गृभ्य) सम्यग् गृहीत्वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् (आ) (भर) धर। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (भूरि) बहु (पश्वः) पशून् ॥१५॥
भावार्थभाषाः - यथा भूमिसूर्यौ सर्वान् धृत्वा संपोष्य वर्द्धयतस्तथैव राजादयोऽध्यक्षाः सर्वाञ्छुभगुणान् धृत्वा प्रजां पोषयित्वा सेनामुन्नीय शत्रून् हत्वा प्रजामुन्नयन्तु ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी भूमी व सूर्य सर्व पदार्थांना धारण करतात व उत्तम प्रकारे पोषण करून वाढवितात तसेच राजा इत्यादी अध्यक्षांनी सर्व गुणांना धारण करून प्रजेचे पोषण, सेनेची वृद्धी व शत्रूंचा नाश करून प्रजेची वाढ करावी. ॥ १५ ॥